राजस्थान की प्रमुख हस्तकलाएँ

हस्तकला ऐसे कलात्मक कार्य को कहते हैं जो उपयोगी होने के साथ-साथ सजाने के काम आता है तथा जिसे मुख्यत: हाथ से या सरल औजारों की सहायता से ही बनाया जाता है। ऐसी कलाओं का धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व होता है। इसके विपरीत ऐसी चीजें हस्तशिल्प की श्रेणी में नहीं आती जो मशीनों द्वारा बड़े पैमाने पर बनाये जाते हैं। 

राजस्थान में प्राचीन काल से ही इन हस्तकलाओ के एक से एक बढकर उस्ताद व घराने हुए हैं, जिनके बनाई वस्तुए संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है। सरकार और कुछ संस्थान मशीनीकरण दौर के कारण विलुप्त होने वाली हस्तकलाओ को प्रोत्साहित कर रही हैं। इसी प्रकार आज हम राजस्थान की प्रमुख हस्तकलाओ के बारे में जानेगे। 

1.ब्लॉक प्रिंटिंग :-कपड़े पर हाथ से छपाई करना ही ब्लॉक प्रिंटिंग कहलाता है। यह राजस्थान की एक परम्परागत कला है। इस काार्यको करने वाले छीपे कहलाते हैं। सागांनेर में नामदेवी छीपे और बाडमेर में खत्री जाति के छीपे करते है। 


🔯प्रसिद्ध ब्लॉक प्रिंटिंग :-

🔰नीले व लाल रंग वाली अजरख प्रिंटिंग (बाडमेर) 

🔰लाल, काले व हरे रंग वाली आजम प्रिंटिंग (अकेला, चित्तौडगढ)। घाघरो के लिए प्रसिद्ध

🔰सांगानेरी प्रिंटिंग (सांगानेर)

🔰लाल व काले रंग वाली बगरू प्रिंटिंग (बगरू) 

2.बधेज :- यह जोधपुर, जयपुर, शेखावटी, बीकानेर आदि पर प्रचलित है। इसमें लहरिया व पोमचा बनाया जाता है, जो मुख्य पीले व किनारो पर लाल रंग का होता है। 

3.कढाई/कशीदाकारी:- कपडेे पर  विभिन्न रंगो के रेशमी धागे से कढाई की जाती हैं, सूूूूती या रेशमी कपडे पर बादले से छोटी छोटी बिंदकी की कढाई मुकेश कहलाती है। 







4.पेचवर्क:-विविध रंगो के टुकडे काटकर कपडो पर विभिन्न डिजाइनो में सिलना ही पैचवर्क कहलाता हैं। यह शेखावटी क्षेत्र में प्रचलित है। 












5.चटापटी का कार्य :-इसमें जरी व गोटे का कार्य आता है, जो महिलाए करती है। यह मुख्यत खण्डेला, जयपुर, भिनाय, अजमेर में होता है। जरी का कार्य महाराज जयसिंंह सूूूूरत से जयपुर लाए थे। 














6.गलीचे,नमदे व दरियाँ :-जयपुुर के  गलीचे तथा टांकला गाँव (नागौर) की दरियाँ प्रसिद्ध है। ऊन को कूूूट-कूट कर उसे जमा कर जो वस्त्र बनाए जातेेहैं, उसे नमदा कहते हैं। टोंक के नमदे प्रसिद्ध है।  














7.कपडो पर चित्रकारी :-यह चित्रकारी दो प्रकार यथा पड़ और पिछवाइयाँ में बटी हुई है। 
(क) पड़ चित्रण:-कपड़े पर लाल व हरे रंग से लोक देवी तथा देवताओ के चित्र बनाना ही पड़ कहलाता है। यह शाहपुरा (भीलवाडा) में प्रचलित है। तथा शाहपुरा का जोशी परिवार इसमें निपुण है। 


















(ख) पिछवाइयाँ:- नाथाद्वारा में कृष्ण की मूर्ति के पीछे दीवारो पर लगाए जाने वाले कपड़े पर कृष्ण की लीलाओ का चित्रण किया जाता है। यही पिछवाइयाँ कहलाती है। 


















8.माँडणा:-मकान की दीवारों  एवं फर्श पर खडिया मिट्टी, गेरू रंगो से ज्यामितीय आकृतियाँ बनाने की कला माँडणा कहलाता है। 


















9.ब्ल्यू पॉटरी:- क्वार्ट्ज एवं चीनी मिट्टी के बर्तनो पर नीले व हरे रंग से चित्रण ब्ल्यू पॉटरी कहलाता है। यह जयपुर में अत्यधिक प्रसिद्ध है तथा दिल्ली से लाई गई थी। भारत में यह कला फारस से आई थी। कृपालसिंह शेखावत इसके प्रसिद्ध हस्त कलाकार थे। 














10.लाख का काम :-राजस्थान में लाख से चूडियाँ, खिलौने व सजावटी समान बनाया जाता है। यह जयपुर में अत्यधिक प्रसिद्ध है। 
11.टैराकोटा :-मिट्टी के बर्तन और खिलौने बनाना टैराकोटा कहलाता है तथा अलवर मे मिट्टी की बारीक व परतदार कलात्मक वस्तुए बनाना कागजी टैराकोटा कहलाता है। इसके अलावा मोलेला गाँँव (नाथद्वारा) और बस्सी (चित्तौडगढ) के टैराकोटा प्रसिद्द हैं। 











12.मीनाकारी :-सोनेे चाँदी व अन्य आभूषणो एवं 
कलात्मक वस्तुओ पर मीना चढाने की कला मीनाकारी कहलाती है। यह भारत में फारस से आई। जयपुर में यह मानसिंह के द्वारा 16 वी सदी में लाहौर से लाई गई थी। 











13.थेवा कला:-प्रतापगढ में काँच की वस्तुओं पर सोनेे
का सूक्ष्म व कलात्मक चित्रण कार्य किया जाता है, जिसे थेवा कला के नाम से जाना जाता है। इसमे हरा रंग ज्यादा उपयोगी है। 















14.कुंदन कला :-सोनेे के  आभूषणो में कीमती पत्थर जडने की कला  कुंंदन कहलाता है। यह जयपुर में अत्यधिक प्रसिद्ध है। 














15.कोफ्तगिरी :-फौलाद की बनी वस्तुओं पर सोने के पतले तारो की जडाई कोफ्तगिरी कहलाती है। यह दमिश्क से पंजाब फिर गुजरात से होकर राजस्थान तक लाई गई थी। अलवर के तलवारसाज और उदयपुर के सिगलीगर इसमें निपुण है। 











16.मुरादाबादी :-पीतल के बर्तनों पर खुदाई करकेे उस पर कलात्मक नक्काशी का कार्य मुरादाबादी कहलाता है। यह जयपुर में अत्यधिक प्रसिद्ध है।  
17.बादला :- जिंक से निर्मित पानी की बोतल जिनके चारो ओर कलात्मक कपड़े का आवरण चढाकर जल को लंबे समय तक ठंडा रखना बादला कला कहलाती है। जोधपुर के बादले सर्वाधिक प्रसिद्ध है। 
18.मुनव्वती/उस्ताकला :-ऊँट की खाल के कुप्पो पर सोने एवं चाँदी से कलात्मक चित्रांकन व नक्काशी मुनव्वती कहलाती है। बीकानेर का उस्ता परिवार इसके लिए विश्व में प्रसिद्ध है। 













19.हाथी दाँत व चंदन पर खुदाई:-यह कार्य जयपुर में होता है, जिससे खिलौने और देवी-देवता की मूर्तियाँ बनती है। 
20.पेपर मैशी/कुट्टी कला:-कागज की लुगदी बनाकर कलात्मक वस्तुए बनाना पेपर मैशी कहलाता है,यह कार्य जयपुर व उदयपुर में सर्वाधिक होता है। 


















21.मिरर वर्क:- पश्चिम राजस्थान विशेषकर जैैैैैसलमेर में कपड़े पर छोटे छोटे शीशे सिलना ही मिला वर्क कहलाता है।


















22.तारकाशी :-नाथाााद्वारा में चाँदी की बारीक
 तारो से आभूषण व वस्तुए बनाना तारकाशी कहलाता है। 
23.रत्नाभूषण :- जयपुर में कीमती पत्थर को सोने व चाँदी में जडना ही रत्नाभूषण कहलाता है।
24.चमडे की वस्तुए :-चमडे की जूतिया और मोजडिया जोधपुर में बहुतायत में बनता है। 
25.लकडी के खिलौने :- लकडी के आकर्षक खिलौने उदयपुर व सवाई माधोपुर में बनते है। बस्सी (चित्तौडगढ) में खरोदी जाति के लोग मंदिर के किवाड बनाते हैं तथा बाडमेर का फर्नीचर प्रसिद्ध है। 
26.मूर्तिकला :-राजस्थान में सर्वाधिक मूर्तियाँ जयपुर में बनती है, जो सफेद संगमरमर की होती हैं। इसके अलावा काले संगमरमर की मूर्ति तलवाडा(डूगरपुर) के सोमपुरा जाति के मूर्तिकार करते हैं। वही लाल पत्थर की मूर्ति थानागाजी (अलवर) के सिलावट (पत्थर की मूर्ति बनाने वाले) करते है।
27.मथैरण कला :- देवी-देवता के आकर्षक भित्ति चित्र,  ईसर, तोरण, गणगौर को आकर्षक रंगो से सजाना मथैरण कला कहलाता है। यह बीकानेर में प्रसिद्ध है। 
28.आलागीला कारीगरी :- पत्थर व चूनेे की दीवारों पर चूने व कली के साथ चित्रकारी करना आलागीला कारीगरी कहलाता है। यह बीकानेर व शेखावटी क्षेत्र में प्रचलित है।  
29. जट कतराई :- ऊँट के बालो को काटकर उस पर आकृतियाँ बनाना जट कतराई कहलाती है। यह ऊँट पालक जाति रायका व रेबारी जाति की कला है। 

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