भारत के प्रमुख किसान आंदोलन कौनसे है?

 हाल ही में चल रहा देश का ज्वलनशील मुद्दा है, "किसान आंदोलन "। किसान केंद्र सरकार के लाए गए, 3 कृषि बिलो से असंतुष्ट है। इसलिए किसान अपनी मांगे लेकर सरकार से नाराज होकर सडको पर है। किसान आंदोलन कोई नई बात नहीं है। मैं आपको बता दूँ। देश की आजादी में 60% योगदान किसान आंदोलन का था। चाहे राजतंत्र हो या चाहे लोकतंत्र किसान ने अपने हक के लिए बिना डरे आवाज ऊठाई है। और अपनी मांगे पुरी कराने में सफल रहा है।

kisan andolan

जैसा कि आपको पता है, हाल ही में सरकार द्वारा नवीन कृषि अधिनियमों को लाया गया है। इन अधिनियमों के फलस्वरूप किसानो का गुस्सा सम्पूर्ण देश में प्रदर्शन के रूप में सामने आया है। किसान न सिर्फ देश का अन्नदाता है बल्कि भारत के स्वाधीनता आंदोलन में जिन लोगों ने शीर्ष स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, उनमें किसानों का भी अहम योगदान रहा है।

आधुनिक भारतीय इतिहास में ऐसे कई अवसर हैं जब किसानो ने विभिन्न विभिन्न समयो पर आंदोलन के द्वारा अपनी मांगो को सरकारों के समक्ष रखा है।आज हम ऐसे ही भारत के प्रमुख किसान आंदोलन के बारे में पढेगे। और जानेगे कि किसान आंदोलन करना सही है या गलत। 

➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖❣️नील आंदोलन :-इस आंदोलन का प्रारम्भ बंगाल के गोविंदपुर गांव में 1859 को आरम्भ हुआ था। बंगाल के किसान अपने खेतो में चावल की खेती करना चाहते थे परन्तु उन्हें यूरोपीय नील की खेती के लिए विवश कर रहे थे।इस आंदोलन का वर्णन दीनबंधु मित्र ने अपने नाटक नीलदर्पण में किया है।

Nil andolan

  इस स्थिति में स्थानीय नेता दिगंबर विश्वास तथा विष्णु विश्वास के नेतृत्व में किसानो ने विद्रोह कर दिया। इस आंदोलन में हिन्दू तथा मुसलमान सभी किसान सम्मिलित थे। अन्ततः सरकार को नील के कारखाने बंद करने पड़े तथा सरकार ने 1860 में नील आयोग का गठन कर जाँच का आदेश दिया। आयोग का निर्णय किसानो के पक्ष में रहा।

❣️पबाना विद्रोह:- यह आंदोलन 1873 -76 में ज़मींदारो द्वारा किसानो के शोषण के विरुद्ध आरम्भ हुआ। इसमें किसानो ने पबाना जिले के युसूफशाही परगने में किसान संघ का गठन किया। यह आन्दोलन ईशान चंद्र राय ,केशवचंद्र राय इस आंदोलन के प्रमुख नेता रहे।

Pabana vidroh

यद्यपि यह आंदोलन ज़मींदार तथा साहूकार विरोधी था न कि उपनिवेशवाद विरोधी। बाकिमचन्द्र चटर्जी ,द्वारिकानाथ गांगुली जैसे नेताओ ने इसका समर्थन किया था।

❣️दक्कन का विद्रोह :- कृषक आंदोलन मात्र उत्तर भारत में ही सीमित नहीं रहे बल्कि यह दक्षिण में भी फैले क्योंकि महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर जिलों में साहूकार किसानों का शोषण कर रहे थे।इसके साथ ही सरकार ने रैय्यतवाड़ी व्यवस्था के अंतर्गत करो को बढ़ा दिया था। अमेरिका में नागरिक युद्ध की समाप्ति के समय बढ़ाये गये कर जब युद्ध समाप्ति के उपरान्त भी कम नहीं किये गए तब किसानो का गुस्सा बढ़ा।

   इसी समय दिसंबर सन् 1874 में एक सूदखोर कालूराम ने किसान (बाबा साहिब देशमुख) के खिलाफ अदालत से घर की नीलामी की डिक्री प्राप्त कर ली। इस पर किसानों आंदोलन शुरू कर दिया। इसमें महाजन साहूकारो के दूकान से सामान खरीदना ,उनके घर काम करना तथा उनके खेतो में काम करने से किसानो ने इंकार कर दिया।

 इस आंदोलन को शांत करने के लिए सरकार ने "दक्कन कृषक राहत अधिनियम " द्वारा किसानो को साहूकारों के विरुद्ध संरक्षण दिया। तब यह आंदोलन शांत हुआ।

❣️चम्पारण किसान विद्रोह :-यह आंदोलन तिनकठिया प्रणाली के विरोध में बिहार के चम्पारण नामक स्थान पर शुरू हुआ था। इस पद्धति में चम्पारण के किसानों से अंग्रेज बागान मालिकों ने एक अनुबंध करा लिया था, जिसके अंतर्गत किसानों को जमीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था।

Champaran andolan

19वीं शताब्दी के अंत में रासायनिक रंगों की खोज और उनके प्रचलन से नील के बाजार समाप्त हो गए। परन्तु बागान मालिकों ने नील की खेती बंद कराने के लिए किसानो से अवैध वसूली की। इस आंदोलन में स्थानीय नेताओ ने गाँधी जी को आमंत्रित किया। गाँधी जी के आने के बाद यह आंदोलन राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन गया।सरकार तथा बागान मालिकों को किसानो का पक्ष सुनना पड़ा। सरकार ने इस आंदोलन को शांत करने के लिए एक आयोग का गठन किया जिसमे गाँधी जी को भी सदस्य बनाया और बागान मालिक अवैध वसूली का 25 % वापस करने पर विवस हो गए।

❣️मोपला किसान विद्रोह :- यह किसान विद्रोह ज़मींदारो के विरुद्ध था। चुकी मोपला किसान मुस्लिम समुदाय से थे तथा ज़मींदार हिन्दू समुदाय से सम्बंधित थे अतः उपनिवेशी सरकार द्वारा इस आंदोलन को सांप्रदायिक रंग देने का प्रयास किया गया था।

Mopla andolan

प्रारम्भ में यह विद्रोह अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ था। महात्मा गांधी, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं का सहयोग इस आंदोलन को प्राप्त था। इस आन्दोलन के मुख्य नेता के रूप में 'अली मुसलियार' थे। यह आंदोलन असहयोग तथा खिलाफत आंदोलन के समकालीन था।

❣️बेगू आंदोलन :-बेगूँ किसान आंदोलन चित्तौड़गढ़ में सन 1921 में आरम्भ हुआ। इसकी शुरूआत बेगार प्रथा के विरोध के रूप में हुई थी। आंदोलन की शुरूआत रामनारायण चैधरी ने की, बाद में इसकी बागड़ोर विजयसिंह पथिक ने सम्भाली थी। इस समय बेगूँ के ठाकुर अनुपसिंह थे 1922 में अनुपसिंह और राजस्थान सेवा संघ के मंत्री रामनारयण चौधरी के मध्य एक समझौता हुआ जिसे 'बोल्सेविक समझौते' की संज्ञा दी गई। यह संज्ञा किसान आंदोलन के प्रस्तावों के लिए गठित ट्रेन्च आयोग ने दी थी।

13 जुलाई,1923 को गोविन्दपुरा गांव में किसानों का एक सम्मेलन हुआ, सेना के द्वारा किसानों पर गोलियाँ चलाई गयी। जिसमें रूपाजी धाकड़ और कृपाजी धाकड़ नामक दो किसान शहीद हुए। अन्त में बेगार प्रथा को समाप्त कर दिया गया। यह आन्दोलन विजयसिंह पथिक के नेतृत्व में समाप्त हुआ था।

❣️बिजौलिया आंदोलन :- बिजोलिया आन्दोलन मेवाड़ राज्य के किसानों द्वारा 1897 ई शुरू किया गया था। यह आन्दोलन किसानों पर अत्यधिक लगान लगाये जाने के विरुद्ध किया गया था। यह आन्दोलन बिजोलिया जागीर से आरम्भ होकर आसपास के जागीरों में भी फैल गया। इसका नेतृत्व विभिन्न समयों पर विभिन्न लोगों ने किया, जिनमें सीताराम दास, विजय सिंह पथिक और माणिक्यलाल वर्मा के नाम उल्लेखनीय हैं। यह आन्दोलन लगभग आधी शताब्दी तक चला और 1941 में समाप्त हुआ। यह आंदोलन धाकड़ जाति के किसानों द्वारा शुरू किया गया था।

Bijoliya andolan

वर्तमान समय में बिजोलिया, राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में स्थित है। आंदोलन के मुख्य कारण थे- 84 प्रकार के लाग बाग़ (कर), लाटा कूंता कर (खेत में खड़ी फसल के आधार पर कर), चवरी कर (किसान की बेटी की शादी पर), तलवार बंधाई कर (नए जागीरदार बनने पर) आदि । यह सर्वाधिक समय (44 साल) तक चलने वाला एकमात्र अहिंसक आंदोलन था। इसमें महिला नेत्रियो जैसे अंजना देवी चौधरी, नारायण देवी वर्मा व रमा देवी आदि ने भी प्रमुखता से हिसा लिया था। गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने समाचार पत्र प्रताप में इस आंदोलन को प्रमुखता दी थी।

इसके अलावा भी भारत में प्राचीन काल से छोटे छोटे किसान आंदोलन अपने स्तर पर होते आए हैं। ऊपर बताए गए आंदोलन राष्ट्रीय स्तर पर चलने वाले आंदोलन जैसे है। जिनमे एक से अधिक राज्यों के किसानों ने मिलकर अपने हक की लड़ाई लडी है। 

किसान आंदोलन को शांत और हिंसक रूप से बचाने का एक ही उपाय है कि सरकार को किसानो की मांगे उनके बीच जाकर सुनी चाहिए। और उचित हितैषी फैसला लेना चाहिए। इतिहास गवाह है। बलपूर्वक किसी भी आंदोलन को ज्यादा देर तक दबा नही सकते हैं। 




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